दक्षिण भारत में मिलीं मशरुम की नई प्रजातियां

शुभ्रता मिश्रा

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वास्को-द-गामा (गोवा), 23 जुलाई: फँफूद यानि कवकों का उपयोग विभिन्न व्याधियों एवं रोगों के निदान और मानव भोजन की कमी को पूरा करने में किया जा रहा है। कवक दुनिया के लगभग सभी भागों में जीवित अथवा मृत कार्बनिक पदार्थों पर उगते पाए जाते हैं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने भारत में मशरुम प्रजाति के तीन नए कवकों की खोज की है।

तमिलनाडु स्थित लेडी डोक कॉलेज, मदुरै के वैज्ञानिकों ने पहली बार फुलविफोम्स फास्टुओसस, गानोडर्मा वाइरोएन्स और फेलिनस बुडियस नामक कवक प्रजातियों की दक्षिण भारत में उपस्थिति दर्ज की है। कवकीय विविधता को समझने के उद्देश्य से वैज्ञानिकों ने मदुरै, डिंडीगल, तिरुनेलवेली और कोयम्बटूर जिलों के कुछ स्थानों से बरसात के दौरान पेड़ों, लकड़ी के लठ्ठों और गिरी हुई पत्तियों के ढेरों पर पनप आए मशरुमनुमा कवकों में से कुल 100 प्रजातियों को एकत्रित किया।

इनमें से 49 कवकों को प्रयोगशाला में कल्चर करके उनके गुणों और आनुवंशिक विविधता का अध्ययन किया गया। शारिरिक बाह्य विशेषताओं में उल्लेखनीय भिन्नताएं देखी गईं। इंटरनल ट्रांसक्रिप्टेड स्पेसर (आईटीएस) और 5.8 एस आरआरएनए जीन अनुक्रम द्वारा किए गए आणविक विश्लेषण के आधार पर 32 कवकों को तीन वर्गों पॉलीपोरेल्स, हाइमीनोकैटेल्स और रसेल्स के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया।

 

गानोडर्मा वाइरोएन्स

 

प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. मोवना सुंदरी ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि इस अध्ययन से पहली बार दक्षिण भारत में फुलविफोम्स फास्टुओसस और गानोडर्मा वाइरोएन्स नामक कवक प्रजातियों की उपस्थिति साबित हुई है। साथ ही फेलिनस बुडियस नामक एक अन्य कवक प्रजाति के अस्तित्व के आणविक साक्ष्य भी पहली बार सामने आए हैं। हमने बायोमेडिकल अनुप्रयोगों के लिए जंगली मशरूमों की खोज पर काम किया है। वैश्विक कवकीय विविधता का एक-तिहाई हिस्सा भारत में मिलता है, जिसमें से केवल 50 प्रतिशत कवकों की पहचान और खोज हुई है। पूरे भारत में पाए जाने वाले औषधीय मूल्यों के मशरुमों की सँख्या अनगिनत है, लेकिन इनमें से बहुत कम का ही वैज्ञानिक परीक्षण हुआ है। इन पर और अधिक वैज्ञानिक शोधों की आवश्यकता है।

फुलविफोम्स फास्टुओसस

अध्ययन में 58 प्रतिशत मशरुम सिरस के पेड़ पर उगे पाए गए, जबकि अन्य मशरुम नीम, नारियल, कनेर, इमली और विशेष रुप से दक्षिण भारत में ही मिलने वाले वृक्ष नागबाला या कंटनकारा पर मिले। ज्यादातर मशरुम पेड़ों की जड़ों और तनों पर, जबकि कुछ सड़े गले पदार्थों पर वृद्धि करते पाए गए। यह शोध हाल ही में जर्नल साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित हुआ है।

मशरुम जैसे कई हानिरहित मांसल कवकों का उपयोग खाने में किया जाता है, हांलाकि कुछ मशरुम जहरीले भी होते हैं। मशरुम की लगभग 700 प्रजातियां औषधीय महत्व की हैं। मशरूम में सभी प्रमुख खनिज लवण जैसे पोटेशियम, फॉस्फोरस, सल्फर, कैल्शियम, लोहा, तांबा, आयोडीन और जिंक आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। यह मुख्य रूप से प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने, जैवताल के नियमन, शारिरिक समतापीय स्थिति को नियंत्रित रखने, अस्थियों, मांसपेशियों तथा शरीर की क्रियाओं को सक्रिय बनाए रखने में सहायता करते हैं।

बरसात में अधिकतर तेजी से उगते हुए सभी तरह के मशरुम यानि कुकुरमुत्ते दिखाई दे जाते हैं। क्योंकि इस मौसम में उनको पनपने के लिए पर्याप्त तापमान, सापेक्ष आर्द्रता और धूप जैसी अनुकूल पर्यावरणीय परिस्थितियां मिल जाती हैं। परोक्ष रुप से कुकुरमुत्ते पर्यावरण की गुणवत्ता के संभावित संकेतक भी होते हैं।

अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि सिर्फ दक्षिण भारत में ही नहीं बल्कि पूरे देश में मशरूम की अत्याधिक प्रजातियां पाई जाती है। अतः इसके समाज-उपयोगी तथा औषधीय गुणों का भरपूर लाभ उठाने के लिए उत्पादकों, वैज्ञानिकों, प्रसार कार्यकर्ताओं, दवा निर्माताओं आदि को मशरूम उत्पादन एवं इससे बनने वाली दवाओं के विकास एवं व्यापार को प्रोत्साहन देने की दिशा में व्यापक रुप से कदम बढ़ाने चाहिए। कवकों पर किया गया यह शोध भारत में कवकीय विविधता की समझ को बढ़ाने और चिकित्सकीय अनुप्रयोगों के लिए उनका अधिक से अधिक लाभ उठाने में सहायक साबित हो सकता है।

शोधकर्ताओं के दल में मोवना सुंदरी के अलावा एल्विन प्रेम आनंद, पैकियाराज जैनिफर और राजैया शेनबागरथै शामिल थे।

(इंडिया साइंस वायर)

 

 

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