टीबी की शीघ्र पहचान के लिए नयी परीक्षण विधियां

  • डॉ दिव्या खट्टर (Twitterhandle: @divya_khatter)

फरीदाबाद, 22 नवंबर : हर साल दुनियाभर में लगभग बीस लाख लोग क्षयरोग (टीबी)के शिकार होते हैं। इस बीमारी के प्रसार एवंप्रकोप से बचनेऔररोगप्रतिरोधक क्षमताविकसित करने के लिए टीबी की पहचान और उपचार महत्वपूर्ण है। फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल स्वास्थ्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान(टीएचएसटीआई) और नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स)के वैज्ञानिकों ने फेफड़ों और उसके आसपास की झिल्ली में क्षयरोग संक्रमण के परीक्षण की नयी विधियां विकसित की हैं, जो अत्यधिक संवेदनशील, प्रभावशाली और तेज हैं।

माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस जीवाणु के कारण होने वाला क्षयरोग रोग संक्रमित हवा में सांस लेने से एक दूसरे में फैलता है। फुफ्फुसीय तपेदिक यानी पल्मोनरी टीबी क्षयरोग का एक आम रूप माना जाता है, जिसमें जीवाणु फेफड़ों पर हमला करते हैं।हालांकि, वर्ष 2016 में लगभग 15 प्रतिशतऐसे नयेमरीज सामने आए, जिनके फेफड़ों के अलावा अन्य अंग भी टीबी से संक्रमित पाए गए। इसे एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी कहते हैं। टीबी के विभिन्न रूपों की पहचान के लिए आमतौर पर सूक्ष्मदर्शीद्वारा बलगम की जांच (स्मीयर माइक्रोस्कोपी) और कल्चर जैसे परीक्षण किए जाते हैं। स्मीयर माइक्रोस्कोपी सरल और तेजविधि है, पर यह कम संवेदनशीलहोती है। जबकि, अत्यधिक संवेदनशील विधि होने के बावजूद है कल्चर परीक्षण के परिणाम आने में दोसे आठसप्ताह लग जाते हैं।

परीक्षण के पारंपरिक तरीकों में कफ के नमूनों में जीवाणु युक्त प्रोटीन का पता लगाने के लिए एंटीबॉडीज का उपयोग किया जाता हैं। हालांकि,इन परीक्षणों मेंविभिन्न रोगियों, उपचार की निर्धारित समयसीमा और लागत जैसी समस्याएं आड़े आती हैं।इन समस्याओं से निपटने के लिएशोधकर्ताओं ने हाल ही में एपटामर लिंक्ड इमोबिलाइज्ड सॉर्बेंट एसे (एलिसा) और इलेक्ट्रोकेमिकल सेंसर (ईसीएस) नामक डीएनए एपटामर-आधारित दो नयी परीक्षण विधियां विकसित की हैं।

एपटामर डीएनए, आरएनए या पेप्टाइड अणु होते हैं, जो अपनी अतिसंवेदनशीलता के कारण विशिष्ट आणविक स्थानोंपर जाकरजुड़ते हैं। यही नहीं, उनमें उन स्थानों पर संलग्न दूसरे अनापेक्षित बंधनों को तोड़ने की विशिष्ट क्षमता भी होती है। शोध के दौरान कफ के 314 नमूनों में किए गए नयेविकसित परीक्षणों से प्राप्त परिणामोंकी तुलना पारंपरिकएंटीबॉडीज आधारित निष्कर्षों से की गई है। इनमें एलीसा परीक्षण ने 92 प्रतिशतसंवेदनशीलता प्रदर्शित की, जबकि एंटीबॉडीज आधारित विधि केवल 68 प्रतिशतसंवेदनशील पायी गई है।

शोधकर्ताओं नेएचएसपीएक्स नामक जीवाणु प्रोटीनका पता लगाने के लिए एलीसा परीक्षण का उपयोग किया था। हालांकि, इस विधि से परिणाम आने में लगभगपांचघंटे लग गए क्योंकि इसमें कफ के स्थिरीकरण की आवश्यकता होती है, जो बहुत अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया है। अब वैज्ञानिकों को सरलीकृत ईसीएस परीक्षण विधि विकसित करने में सफलता मिली है, जिसमें एपटामर एक इलेक्ट्रोड के जरिये स्थिरीकृत हो जाता है और कफ के नमूने में उपस्थित एचएसपीएक्स से जुड़ते समयएकविद्युत संकेत के रूप में दर्ज हो जाता है।

ईसीएस परीक्षण का उपयोग क्षेत्र में नमूनों की जांच के लिए किया जा सकता है और इससे महज 30 मिनट में परिणाम मिल जाते हैं। यह अत्यधिक संवेदनशील विधि है।इससे 91 प्रतिशतनमूनों में एचएसपीएक्स का पता लगाया जा सकता है।इसकी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके लिए कफ के नमूने तैयार करनेजैसी जटिल और अधिक समय लगने वाली किसी भी प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं होती।

शोधकर्ताओं में शामिल तरुण शर्मा के अनुसार, “हमारा उद्देश्यविभिन्नजीवाणुवीय प्रोटीनों का पता लगाने के लिए कई एपटामर विकसित करना है, जिससेअधिक सटीक परीक्षण किए जा सकें।”

शोध टीम में शामिल एम्स की प्रमुख शोधकर्ता जया त्यागीके अनुसार, “फुफ्फुसीय टीबी, फुफ्फुसीयझिल्ली टीबीऔर केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करने वाली मेनिंगिटिस टीबी के लिए एपटामर-आधारित जांच परीक्षण भारत जैसे देश के लिए लाभकारी साबित हो सकते हैं, जहां इस बीमारी से बड़ी संख्या में लोग त्रस्त हैं और उनके लिए प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल सपने की तरह है। ऐसी जगहों तक आसानी से ईसीएस परीक्षणकी सुविधा पहुंचाने के लिए एक मोबाइल स्क्रीनिंग वैन काउपयोग किया जा सकता है। उम्मीद है कि देश में क्षयरोग उपचार कार्यक्रमों में इन परीक्षणों को अपनाया जाएगा।”

शोधकर्ताओं ने एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी के दूसरे सबसे प्रचलित प्रकार फुफ्फुसीय झिल्ली टीबी का पता लगाने के लिए भी एपटामर-आधारित परीक्षण का उपयोग किया है। फुफ्फुसीय झिल्ली टीबी की प्रारंभिक पहचानके लिए उपलब्ध संवेदनशील और तेज परीक्षण विधियों की संख्या बहुत कम हैं। मौजूदा डीएनए-आधारित परीक्षण इसके लिए उतने परिशुद्ध परिणाम नहीं दे पाते हैं क्योंकि फुफ्फुसीय झिल्ली के तरल नमूनों में जीवाणुओं की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है।

अनुसंधान दल की एक सदस्य सागरिका हल्दर ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “फुफ्फुसीय झिल्लीटीबी की पुष्टि करने के लिए कोई परीक्षण नहीं है। यहां तक कि डब्ल्यूएचओ द्वारा अनुमोदित जीन एक्सपर्ट नामक परीक्षण की संवेदनशीलता भी 22 प्रतिशत है, जो काफी कम है। इसके विपरीत, फुफ्फुसीय झिल्ली टीबी के लिए एपटामर- आधारित परीक्षण कीसंवेदनशीलता 93 प्रतिशत आंकी गई हैऔर यह किफायतीभी है। यदि डॉक्टर इलाज के लिएइस परीक्षण को अपनाते हैं तो फुफ्फुसीय झिल्ली से संबंधितटीबी के निदान में महत्वपूर्ण बदलाव हो सकता है।”

अनुसंधान दल में डॉ जया त्यागी (एम्स), डॉ तरुण शर्मा और डॉ सागरिका हल्दर (टीएचएसटीआई) के साथ-साथ दोनों संस्थानों के अन्य वैज्ञानिक भी शामिल थे। फुफ्फुसीय टीबी संबंधी परिणाम जर्नल एसीएस इन्फेक्शियस डिसीजेस में और फुफ्फुसीय झिल्ली टीबी के परिणाम एनालिटिकल बायोकेमिस्ट्री में प्रकाशित किए गए हैं। यह अध्ययन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के जैव प्रौद्योगिकी विभागऔर टीएचएसटीआईद्वारा दिए गए अनुदान पर आधारित है।

(इंडिया साइंस वायर)

भाषांतरण – शुभ्रता मिश्रा

 

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